अक्सर यह सुनने को मिलता है कि उसने भूत को देखा है, लेकिन हम इसे अंधविश्वास और वहम् मानकर टाल देते है, क्योंकि हम विज्ञानयुग में जी रहे है आदिमयुग में नहीं। पर यदि यही न्यूज चैनल दिखाएं और बतायें तो हम शायद सोचने पर विवश हो जाएगें कि हम कहीं 17वीं, 18वीं सदी में तो नहीं चले गये हैं, जब अंधविश्वास और रूढ़िवाद समाज पर अपनी पकड़ बनाए हुए थे। पर 21वीं सदी में भूत-प्रेतों को टीवी पर दिखाना हास्यास्पद तो लगता ही है और इन चैनलों का बचपना भी दिखाता है, जिन्हें बड़ा होने में अभी वक्त लगेगा।
वैसे देखा जाएं तो ये सारा बचपना टीआरपी नामक लालीपॉप के कारण है, जिसके चक्कर में ये न्यूज चैनल अपनी दिशा से भटक गए हैं। देश में प्रत्येक दिन खुलते नये चैनल और एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ ने मीडिया पर प्रतिकूल असर डाला है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है और इस अवस्था उससे कुछ न कुछ बचकाने काम हो रहे हैं। किन्तु यह इतना भी नहीं हो कि इसका ख़ामियाज़ा पूरे समाज को झेलना पड़े।
टीआरपी के चक्कर में चैनलों ने गड़े मुर्दों को उखाड़ कर अपनी कमाई का जरिया निकाल लिया। इन भूतों की दैनिक दिनचर्या, रहन-सहन, आगमन-प्रस्थान का व्यौरा देकर एक विचित्र तरकीब निकाला अपने को आगे लाने के लिए। भूत कैसे होते है? ये क्या करते है ? यह सब न्यूज चैनलों में मिल जाएगा। आज जितने तरह के अंधविश्वास समाज में बचे है, उन्हें समाप्त करने के बजाए बढ़ाने का ठेका इन चैनलों ने ले रखा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जादू टोना, झाड़ फूंक, कबीलाई बिंब और डरावने माहौल को न्यूज चैनल धड़ल्ले से दिखाने में लग गए है। क्या यही पत्रकारिता है? वो समय कहां गया जब यही पत्रकारिता हमारी आजादी का हथियार बनी थी। जनता को जागरूक करने का काम इसी पत्रकारिता ने किया। रूढ़िवाद को समाप्त करके विज्ञान को बढ़ाया। किन्तु यही विज्ञान रूढ़िवाद और अंधविश्वास को बढ़ाने का माध्यम बन गया है। जिसका एक मात्र कारण अपनी टीआरपी बढ़ाना है क्योंकि टीआरपी नामक यह भूत चैनलों का इंजन है। कुछ भी हो चैनलों ने भूतों को सेलीब्रेटीज बना दिया है। अपने अस्तित्व खो चुके भूतों के विचार विज्ञान युग में प्रसिध्दी पा रहे है। यह कहना गलत न कि चैनल भूतों का शिकार हो गये है इसीलिए तो भूतों की बल्ले-बल्ले हो रही है।
वैसे देखा जाएं तो ये सारा बचपना टीआरपी नामक लालीपॉप के कारण है, जिसके चक्कर में ये न्यूज चैनल अपनी दिशा से भटक गए हैं। देश में प्रत्येक दिन खुलते नये चैनल और एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ ने मीडिया पर प्रतिकूल असर डाला है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है और इस अवस्था उससे कुछ न कुछ बचकाने काम हो रहे हैं। किन्तु यह इतना भी नहीं हो कि इसका ख़ामियाज़ा पूरे समाज को झेलना पड़े।
टीआरपी के चक्कर में चैनलों ने गड़े मुर्दों को उखाड़ कर अपनी कमाई का जरिया निकाल लिया। इन भूतों की दैनिक दिनचर्या, रहन-सहन, आगमन-प्रस्थान का व्यौरा देकर एक विचित्र तरकीब निकाला अपने को आगे लाने के लिए। भूत कैसे होते है? ये क्या करते है ? यह सब न्यूज चैनलों में मिल जाएगा। आज जितने तरह के अंधविश्वास समाज में बचे है, उन्हें समाप्त करने के बजाए बढ़ाने का ठेका इन चैनलों ने ले रखा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जादू टोना, झाड़ फूंक, कबीलाई बिंब और डरावने माहौल को न्यूज चैनल धड़ल्ले से दिखाने में लग गए है। क्या यही पत्रकारिता है? वो समय कहां गया जब यही पत्रकारिता हमारी आजादी का हथियार बनी थी। जनता को जागरूक करने का काम इसी पत्रकारिता ने किया। रूढ़िवाद को समाप्त करके विज्ञान को बढ़ाया। किन्तु यही विज्ञान रूढ़िवाद और अंधविश्वास को बढ़ाने का माध्यम बन गया है। जिसका एक मात्र कारण अपनी टीआरपी बढ़ाना है क्योंकि टीआरपी नामक यह भूत चैनलों का इंजन है। कुछ भी हो चैनलों ने भूतों को सेलीब्रेटीज बना दिया है। अपने अस्तित्व खो चुके भूतों के विचार विज्ञान युग में प्रसिध्दी पा रहे है। यह कहना गलत न कि चैनल भूतों का शिकार हो गये है इसीलिए तो भूतों की बल्ले-बल्ले हो रही है।
1 टिप्पणी:
bilkul sahi farmaya aapne bhooton ji balle balle ho ya na ho hum to dar gaye bhai
mazkoor
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