समाचार-खबरें

लेख-फीचर्स

Adbusters
Advocate
Albion Monitor
Alternet
AJReview NewsLink
American NewSpeak
American Prospect
Atlantic Monthly
Bad Subjects
Baffler
BeyondChron
Boston Review
Bulletin/Atomic Scientists
Business Ethics
Canadian Dimension
Catholic Worker
Center for Public Integrity
Change Links
City Limits
Clamor
Coffee Shop Times
Color Lines
Commonweal
Conscious Choice
Consortium
Consumer Reports
CorpWatch
CounterPunch
Covert Action
Critical Asian Studies
Dissent
Dollars & Sense
Doonesbury Daily
DoubleTake
E Magazine
Earth Island Journal
EarthLight
Eat The State!
Foreign Policy/In-Focus
Grassroots Econ Organizing
Grist Magazine
Harpers
Heroine Magazine
High Country News
HopeDance
Impact Press
In Motion
In the Fray
In These Times
Ironic Times
Justice Denied
LaborNotes
Left Business Observer
Media Alliance
MediaChannel.org
Metaphoria
Middle East Report
MonkeyFist Collective
Monthly Review
Mother Jones
Moving Ideas
Ms. Magazine
Multinational Monitor
Nation Magazine
National Parks Conservation
New Internationalist
New Labor Forum
New Left Review
New Politics
New Republic
New Rules Journal
Newswatch Project
Newsweek
New Yorker
New York Press
New York Review of Books
Non-Violent Activist
Northern Sky News
NOW Times
Ode
Off Our Backs
Onion.com
Orion Magazine
Peace Magazine
Peacework
Political Sci Quarterly
Progressive Magazine
Progressive Populist
Progressive Response
Progressive Review
PR Watch
Public Eye Magazine
Rabble.ca
Rachel's Weekly
Ragged Edge
Red Pepper
Rethinking Marxism
Rethinking Schools
Salon
Satya
Scientific American
SF Bay Guardian
Shelterforce
SmokingGun.com
Social Policy
Sojourners
Sun Magazine
Synthesis/Regeneration
Terrain
Texas Observer
This Magazine
Tikkun
Time
Timeline
TomPaine.com
Too Much
Toward Freedom
Utne Reader
Village Voice
War Times
Washington Monthly
Washington Spectator
WebActive
Wild Duck Review
WireTap
Wired Politics
Work In Progress
World Policy Journal
World Watch Institute
Yes! Magazine
Yo! The Beat Within
Z Magazine

पत्र-पत्रिकाएं

स्थाई स्तंभ

हमारी-सेवाएं

अखबार

समाचार एजेंसिंयां

Powered By Blogger

भूत का चैनल या न्यूज का चैनलः सर्वेश सिंह

अक्सर यह सुनने को मिलता है कि उसने भूत को देखा है, लेकिन हम इसे अंधविश्वास और वहम् मानकर टाल देते है, क्योंकि हम विज्ञानयुग में जी रहे है आदिमयुग में नहीं। पर यदि यही न्यूज चैनल दिखाएं और बतायें तो हम शायद सोचने पर विवश हो जाएगें कि हम कहीं 17वीं, 18वीं सदी में तो नहीं चले गये हैं, जब अंधविश्वास और रूढ़िवाद समाज पर अपनी पकड़ बनाए हुए थे। पर 21वीं सदी में भूत-प्रेतों को टीवी पर दिखाना हास्यास्पद तो लगता ही है और इन चैनलों का बचपना भी दिखाता है, जिन्हें बड़ा होने में अभी वक्त लगेगा।
वैसे देखा जाएं तो ये सारा बचपना टीआरपी नामक लालीपॉप के कारण है, जिसके चक्कर में ये न्यूज चैनल अपनी दिशा से भटक गए हैं। देश में प्रत्येक दिन खुलते नये चैनल और एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ ने मीडिया पर प्रतिकूल असर डाला है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है और इस अवस्था उससे कुछ न कुछ बचकाने काम हो रहे हैं। किन्तु यह इतना भी नहीं हो कि इसका ख़ामियाज़ा पूरे समाज को झेलना पड़े।
टीआरपी के चक्कर में चैनलों ने गड़े मुर्दों को उखाड़ कर अपनी कमाई का जरिया निकाल लिया। इन भूतों की दैनिक दिनचर्या, रहन-सहन, आगमन-प्रस्थान का व्यौरा देकर एक विचित्र तरकीब निकाला अपने को आगे लाने के लिए। भूत कैसे होते है? ये क्या करते है ? यह सब न्यूज चैनलों में मिल जाएगा। आज जितने तरह के अंधविश्वास समाज में बचे है, उन्हें समाप्त करने के बजाए बढ़ाने का ठेका इन चैनलों ने ले रखा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जादू टोना, झाड़ फूंक, कबीलाई बिंब और डरावने माहौल को न्यूज चैनल धड़ल्ले से दिखाने में लग गए है। क्या यही पत्रकारिता है? वो समय कहां गया जब यही पत्रकारिता हमारी आजादी का हथियार बनी थी। जनता को जागरूक करने का काम इसी पत्रकारिता ने किया। रूढ़िवाद को समाप्त करके विज्ञान को बढ़ाया। किन्तु यही विज्ञान रूढ़िवाद और अंधविश्वास को बढ़ाने का माध्यम बन गया है। जिसका एक मात्र कारण अपनी टीआरपी बढ़ाना है क्योंकि टीआरपी नामक यह भूत चैनलों का इंजन है। कुछ भी हो चैनलों ने भूतों को सेलीब्रेटीज बना दिया है। अपने अस्तित्व खो चुके भूतों के विचार विज्ञान युग में प्रसिध्दी पा रहे है। यह कहना गलत न कि चैनल भूतों का शिकार हो गये है इसीलिए तो भूतों की बल्ले-बल्ले हो रही है।

समाज से विमुख मीडिया - कुरबान अली

भारतीय मीडिया केवल 10 प्रतिशत लोगों की चिंता करता है, वह भी उचित तरीके से नहीं। यह छोटी-छोटी खबरों को तिल का ताड़ बनाकर परोसता है, जबकि जरूरी खबरों को हमेशा अनदेखा कर देता है।
विदुर के पिछले अंक के संपादकीय में राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम
ने प्रेस इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित 'ग्रासरूट समिट' में मीडिया द्वारा विकास को प्राथमिकता देने की बात का उल्लेख किया गया था। उनके भाषण को उध्दृत करते हुए कहा गया कि इस अवसर पर राष्ट्रपति ने मीडिया से आह्वान किया कि ''उसे देश की समूची जनता की पीड़ाओं, दुखों, खुशियों तथा उसकी सफलताओं को प्रतिबिंबित करना चाहिए।'' साथ ही संपादकीय की यह टिप्पणी भी थी कि राष्ट्रपति का यह सुझाव बेहद सामयिक और सटीक है, क्योंकि मौजूदा समय में देश में मीडिया केवल 10 प्रतिशत लोगों का खैरख्वाह बना हुआ है, जबकि उसे एक अरब लोगों का खैरख्वाह होना चाहिए।
राष्ट्रपति का यह सुझाव और विदुर के संपादकीय की टिप्पणी आज के दौर में मीडिया के बारे में बहुत ही मौजूं है, क्योंकि मीडिया ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सरोकार देश में जिस तेजी से बदल रहे हैं और बाजार जिस तेजी से मीडिया पर हावी होता जा रहा है, ऐसे में न केवल उसका विश्लेषण करने की जरूरत है बल्कि समय का तक़ाजा है कि मीडिया को स्वयं ही आत्म-विवेचन करना चाहिए। लेकिन शायद उसके पास ऐसा करने के लिए समय नहीं है या वह जानबूझकर ऐसा करना नहीं चाहता।
आज भारतीय मीडिया का चेहरा बदले जाने की जरूरत है और वह ऐसा चेहरा होना चाहिए जो गरीब, दलित, शोषित, पीड़ित, लोगों यानी उन लोगों की बात करें जो हाशिए पर हैं और समाज के बुनियादी सवालों को उठाते हुए विकास की बात करे यानी किस प्रकार देश में गरीबी, बेकारी, भुखमरी को दूर किया जा सकता है, किस तरह लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण की बेहतर देखभाल की जा सकती है और किस तरह देश की आर्थिक समृध्दि और
विकास को तेज किया जा सकता है।
अभी हाल ही में मेरे एक दोस्त चीन से भारत वापस आए। वे सऊदी अरब में एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ हैं और साल में लगभग दो सौ दिन विदेश में रहते हैं। उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि मैं इंटरनेट पर उपलब्ध चीन के अखबार पढ़ा करूं और यह देखूं कि वे किस तरह अपने देश के विकास की बात करते हैं और उनसे कुछ सबक हासिल करूं। लगभग छह वर्ष पहले सन् 2000 में मुझे बीबीसी की ओर से न्यूयार्क में हुई संयुक्त राष्ट्र की 55 वीं सालाना बैठक को कवर करने का अवसर मिला था जिसमें सहस्राब्दि घोषणा-पत्र जारी किया गया था। इस बैठक में 190 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनमें डेढ़ सौ से ज्यादा देशों के राष्ट्राधयक्ष या राष्ट्रप्रमुख शामिल थे। इस घोषण पत्र में दुनिया भर में शांति कायम करने, स्वतंत्रता और समानता के अधिाकार की बात करने के साथ-साथ गरीबी हटाने और विकास पर जोर दिया गया था।
इस बैठक को भारत के तत्कालीन प्रधाानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तानी के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने भी सम्बोधित किया और संयुक्त राष्ट्र के इस घोषणा-पत्र को स्वीकार करते हुए इसके अमल पर अपनी प्रतिबध्दता व्यक्त की। लेकिन उस समय मेरी हैरत का कोई ठिकाना न रहा, जब भारत और पाकिस्तान से आये सौ से भी अधिाक पत्रकारों ने इस बड़े अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की कार्यवाही और उसके प्रस्तावों को 'कवर' करने की बजाय सारी शक्ति इस बात को 'कवर' करने में लगा दी कि प्रधाानमंत्री वाजपेयी और राष्ट्रपति मुशर्रफ की इस अवसर पर मुलाकात नहीं हो सकी और दोनों नेताओं ने एक दूसरे से हाथ मिलाना तो दूर एक दूसरे को देखा तक नहीं। इस मौके पर दोनों देशों ने न्यूयार्क के दो बड़े होटलों में अपने-अपने मीडिया सेंटर कायम किए थे, जहां से एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप लगाने का सिलसिला जारी था। हद तो यह थी कि दोनों देशों के पत्रकार अपनी-अपनी राष्ट्रीय भावनाओं से इतना बंधो हुए थे कि एक दूसरे के मीडिया सेंटर में जाने से भी परहेज कर रहे थे और दूसरा पक्ष जाने बिना अपने-अपने देशों के नेताओं और प्रवक्ताओं के बयान जोर-शोर से प्रचारित और प्रसारित कर रहे थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अमेरिका की व्यापारिक राजधाानी कहे जाने वाले शहर न्यूयार्क में जहां संयुक्त राष्ट्र का यह सम्मेलन हो रहा था और जिसमें डेढ़ सौ से अधिाक देशों के राष्ट्राधयक्ष या राष्ट्रप्रमुख भाग ले रहे थे, न्यूयार्क के अखबारों की पहले पन्ने की खबर या टीवी न्यूज चैनलों की हेडलाइन,
यह खबर नहीं थी।
वहां के अखबारों और टीवी चैनलों पर लगातार ऐसी ख़बरें दी जा रही थीं और ऐसे कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे जो भारतीय मीडिया के लिए ऊबाऊ खबरें होती हैं। लेकिन वहां के लोगों की दिलचस्पी इन्हीं खबरों में थी कि देश में बेरोज़गारी की स्थिति क्या है? शिक्षा के लिए कितना बजट आवंटित किया गया है? स्वास्थ्य सेवाएं कैसे बेहतर की जा सकती हैं? पर्यावरण को और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है? यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि दुनिया भर में सारी बुराइयों की जड़ कहा जाने वाला अमेरिका अपने देश के नागरिकों को भला अच्छी सीख कैसे दे सकता है! लेकिन सच तो यह है कि वहां उस समय और आज भी मीडिया के सरोकार अपने लोगों और देश की भलाई से जुड़े हैं और संयुक्त राष्ट्र में इकट्ठा हुए दुनिया भर के नेता अपने आपसी विवादों के बारे में क्या कह रहे थे और क्या आरोप लगा रहे थे, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं था। खासकर भारतीय उपमहाद्वीप के नेता एक दूसरे के बारे में क्या कह रहे हैं, इसका तो कोई उल्लेख भी अमेरिकी मीडिया में नहीं था। हां, इतना जरूर है कि इस सबके बीच दो छोटी सी खबरें झलकियों के तौर पर यह जरूर दी गईं कि पहली बार अमेरिका की धारती पर कदम रखने वाले क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से हाथ नहीं मिलाया और मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल गयूम की ये टिप्पणी कि जलवायु परिवर्तन के बारे में अगर दुनिया ने समय रहते गंभीर रूप से नहीं सोचा तो उनका देश जल्द ही पानी में
समा जाएगा।
यहां इन बातों का उल्लेख करना इसलिए जरूरी हो गया कि आज के दौर में भारतीय मीडिया छोटी-छोटी खबरों को ही चटख़ारे लेकर कई-कई दिनों तक प्रसारित करता है। मसलन, पटना के प्रोफेसर का अपनी एक शिष्या के साथ प्रेम प्रसंग, कुरुक्षेत्र में एक बालक का तीन दिनों तक एक संकरे कुएं में फंसा होना, या कुंजी लाल नामक एक व्यक्ति को अपने मरने की भविष्यवाणी करना जो गलत साबित हुई। इसके अलावा फैशन और बाजार की चकाचौंधा, फिल्मी हस्तियों के बेमतलब किस्से, स्टिंग ऑपरेशन और अंधाविश्वास तथा अपराधाों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम जिनमें जुर्म और मुजरिम को महिमामंडित किया जाता है और पुरातनपंथी
विचारों को गरिमा प्रदान की जाती है।
दूसरी ओर अखबारों और टीवी चैनलों पर यह बहस कहीं सुनाई नहीं देती कि इस देश में कितने लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन जीने को अभिशप्त हैं, कितने लोगों को दो वक्त का खाना और पीने के लिए साफ पानी उपलब्धा नहीं है, कितने लोग बिना छत के खुले आसमान के नीचे सोने के लिए मजबूर हैं, कितनी महिलाएं और बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जो महिलाएं या बच्चे कुपोषण से बच गए हैं उनमें से कितने बाल मजदूरी करने और अपना पेट पालने के लिए जिस्म बेचने पर मजबूर हैं, कन्या भ्रूण-हत्या की दर क्या है, कितने बच्चे स्कूल जा पा रहे हैं और देश में साक्षरता की दर कितनी है, बेरोजगारी की स्थिति क्या है और आने वाले दिनों में कितनी होने वाली है, स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल है। अमीरों के लिए दिनों-दिन बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूर्ण सुख सुविधााओं से सुसज्जित अस्पताल तो बना रही हैं, जहां बड़े पैसे वालों का इलाज एयर कंडीशंड कमरों में होता है, लेकिन सरकारी अस्पतालों की स्थिति क्या है और वहां आम लोगों का इलाज किस तरह होता है। देश में पर्यावरण की स्थिति क्या है, क्या भारत विकसित देशों के कचरे को इकट्ठा करने वाला कूड़ा घर नहीं बनता जा रहा, क्या पेय पदार्थों के नाम पर हम कीटनाशक दवाओं का सेवन नहीं कर रहे हैं, जिससे कैंसर जैसी बीमारियां तेजी के साथ फैल रही हैं! आज महानगरों में पॉलीपैक दूध के नाम पर, कास्टिक यूरिया और कपड़े धोने वाला साबुन क्यों खुलेआम मिलाया जा रहा है? क्यों आज हमारे शहर, कस्बे और अब तो गांव भी प्रदूषित हो रहे हैं और इस बारे में किसी को चिंता क्यों नहीं
है?
हम अच्छे नागरिक कैसे बनें और कैसे अपने देश को तरक्की के रास्ते पर आगे ले जाएं, इसकी चर्चा मीडिया में क्यों सुनाई नहीं देती। क्यों हम अपनी तुलना हमेशा इथोपिया, सोमालिया और अफ्रीका के कुछ अन्य अति पिछड़े और बांग्लादेश जैसे देशों से करके संतुष्ट हो जाते हैं? क्यों हम चीन, जापान, कोरिया, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे तेजी से विकसित हो रहे देशों से अपनी तुलना नहीं करते? क्यों हमारा सारा धयान सिर्फ बाजार का सूचकांक 10 से 15 हजार तक हो जाने और सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर 8 से 10 फीसदी तक हो जाने पर लगा रहता है और इसी को अर्थव्यवस्था बेहतर होने का बेंचमार्क माना जाता है?
क्यों कोई दूसरा साईनाथ पैदा नहीं होता, जो देश भर में घूम-घूम कर बताए कि किसानों की स्थिति क्या है और वे क्यों आत्महत्याएं कर रहे हैं। आम आदमी का रहन-सहन कैसा है, कालाहांडी, बस्तर और देश के दूसरे दूर-दराज वाले इलाकों में लोग आज भी पाषाण युग जैसा जीवन जीने को क्यों अभिशप्त हैं?
कुछ वर्ष पहले आर्थिक मामलों के जानकार अपने एक मित्र से जब मैं बजट पर उनकी प्रतिक्रिया ले रहा था, तो उन्होंने बहुत ही सादगी के साथ एक बड़ी बुनियादी बात कही। उनका कहना था, ''इस देश में 5 से 10 फीसदी लोगों को तो यह चिंता सताती रहती है कि गलत तरीके से जमा की गई धान-दौलत किस तरह ऐशो-इशरत और अय्याशी पर खर्च की जाए। 10 से 20 फीसदी लोग ऐसे हैं जो अपने आपको मधयवर्गीय कहते हैं और दिन-रात अमीर बनने के सपने देखते रहते हैं। 20 से 30 फीसदी लोग ऐसे हैं जो किसी तरह अपना गुजारा करके परिवार का भरण-पोषण करने के संघर्ष में जुटे हुए हैं। बाकी बचे 60-65 फीसदी लोग राम-भरोसे हैं, जिनकी चिंता न पहले किसी को थी, न अब है और न आगे होने की कोई संभावना दिखाई देती
है।''
अपने देश की स्थिति पर इससे बेहतर और सटीक टिप्पणी मेरी राय में कुछ और हो नहीं सकती। लेकिन अपने देश का मीडिया इससे पूरी तरह बेखबर है और उसे इस तरफ देखने की फुर्सत भी नहीं है।